कक्षा 8 संस्कृत ,2 बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता ,'पंचतंत्र' (गुणागुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः। )By SUJEET SIR,9709622037,8340863695, ARARIA BIHAR
पाठ 2 बिलस्य वाणी न कदापि में श्रुता
प्रस्तुत पाठ 'पंचतंत्र' के तृतीय खंड से है। यह खंड 'काकोलुकीय' नाम से जाना जाता है। पंचतंत्र के रचयिता. का नाम 'विष्णुशर्मा' है।
इस ग्रंथ की रचना विष्णुशर्मा ने राजा अमरशक्ति के मूर्ख पुत्रों को नीतिशास्त्र की शिक्षा देने के लिए दी थी। इस सिद्धांत में पाँचवें खंड हैं, जिनमें 'तंत्र' कहा गया है। पंचतंत्र एक प्रसिद्ध कथाग्रंथ है। इसमें अनेक कथाएँ ई हैं। बीच-बीच में शिक्षाप्रद श्लोक भी दिए गए हैं। कल्पित के पात्र पात्र पशु-पक्षी हैं।
पाठ का सार इस प्रकार है कि किसी वन में खरनकर नामक सिंह रहता था। वह भोजन की खोज में घूम रही थी। सायंकल ने एक विशाल गुफा को देखा तो उसने सोचा- 'इस गुफा में रात को कोई प्राणी दिखाई नहीं देता। मूल रूप से यहां छिपकर छिपकली हूं।'
इसी बीच उस गुफा का स्वामी दधिपुच्छ नामक गीदड़ वहाँ आया और सिंह के पैरों के निशान देखकर बाहर खड़ा हो गया। गीदड़ बुद्धिपूर्वक विचार करके गुफा से कहने लगा-'अरे गुफा! आज तुम मुझे क्यों नहीं बुला रही हो?'
यह सुनकर (मूर्ख) सिंह ने सोचा कि यह गुफा इस गीदड़ को प्रतिदिन बुलाती होगी। आज मेरे भय से नहीं बुला रही है। यह सोचकर सिंह ने उसे अन्दर आने के लिए कहा। सिंह की आवाज सुनकर गीदड़ ने कहा- मैंने आज तक गुफा की आवाज नहीं सुनी।' ऐसा कह कर वह भाग गया।
मूलपाठः, अन्वयः, शब्दार्थः सरलार्थश्च
(क) कस्मिंश्चित् वने कर्णकरः नामसिंहः प्रतिवसति स्म। सः कदाचित् इतस्ततः परिभ्रमन् क्षुधातः न किञ्चिदपि आहारं प्राप्तवान्। ततः सूर्यसमये एकां महतिं गुलाम्
दृष्टा सः अचिन्तयत्- "नूनं एतस्यां गुलायां रात्रौ कोऽपि जीवः आगच्छति। मूलतः अत्रैव निगुधो भूत्वा तिष्ठमि" इति।
शब्दार्थ-
कस्मिंश्चित्-किसी।
प्रतिवसति स्म-रहता था।
इतस्ततः-इधर-उधर (भटकना) I
क्षुधार्तः-भूख से व्याकुल (Extremely Hungry) |
किञ्चिदपि-कुछ भी।
ततः-तब।
महतीम्-विशाल।
दृष्ट्ा-देखकर।
नूनम्-अवश्य ही। निश्चित रूप से।
वने-वन में।
कदाचित्-किसी समय।
परिभ्रमण-घूमता हुआ।
आहारम्-भोजन।
एकम्-एक ।
गुहाम्-गुफा (Cave) को।
अचिन्तयत्-सोचा।
एतस्याम्-इसमें।
रात्रौ-रात में।
जीवः-प्राणि।
अतः इसलिए।
निगुधो भूत्वा-छिप कर (छिपाओ)
कोऽपि-कोई भी।
आगच्छति-आता है।
अत्रैव-यहाँ पर ही।
तिस्तामि-बैठ जाता हूँ।
सरलार्थ-
किसी वन में खरनखर नामक सिंह (Lion) रहता था। किसी समय भूख से व्याकुल होकर इधर-उधर घूमते हुए उसे कुछ भी भोजन प्राप्त न हुआ। तब सूर्य के अस्त होने के समय एक विशाल गुफा को देखकर वह सोचने लगा-"निश्चित रूप से इस गुफा में रात में कोई प्राणी आता है। अतः यहाँ पर ही छिप कर बैठता हूँ।"
(ख) एतस्मिन् अन्तरे गुयाः स्वामी दधिपुच्छः नामकः शृगालः समाग्च्छत्। स च यावत् पश्यति तावत् सिंहपदपद्धतिः गुलायां प्रविस्ता दृश्यते, न च बहिरागता। शृगालः अचिन्तयत्-"अहो विनष्टोऽस्मि। नूनम् अस्मिन् बिले सिंहः अस्तिति कबस्यामि। तत् किं कराणि?"
शब्दार्थ-
एतस्मिन अंतरे-इसी बीच (इस बीच) I
नामितः-नाम।
समाग्च्छत्-आ गया (पहुंच गया) I
पश्यति-देखता है।
सिंहपद०-सिंह के पैरों के।
प्रविष्टा-प्रविष्ट हुई । अंदर चली गई।
बहिः-बाहर।
अचिन्तयत्-सोचने लगा।
नूनम्-अवश्य ही।
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