class 8th,पाठ 1सुबातातानि ['सुभाषित' शब्द 'सु + भाषित' इन दो शब्दों के मेल से होता है। (गुणागुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः। )By SUJEET SIR,9709622037,8340863695, ARARIA BIHAR



पाठ 1सुबातातानि

['सुभाषित' शब्द 'सु + भाषित' इन दो शब्दों के मेल से होता है। सु का अर्थ सुन्दर, मधुर और भाषित का अर्थ वचन है। इस प्रकार है सुभाषित का अर्थ सुन्दर/मधुर वचन। प्रस्तुत पाठ में सूक्तिमंजरी, नीतिशतकम्, मनुस्मृतिः, शिशुपालवधम्, पंचतन्त्रम् से रोचक और विचारपरक श्लोकों को संगृहीत किया गया है।]







मूलपाठः, अन्वयः, शब्दार्थः सरलार्थश्च


(क) गुणागुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः। सुस्वादुतोयाः प्रभवन्ति नाद्यः समुद्रमासाद्य भवन्तिपेयाः ॥1॥




अन्वयः

गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति। ते (गुणाः) निर्गुणं प्राप्य दोषा भवन्ति। (यथा) सुस्वादुतोयाः नाद्यः प्रभावन्ति, (परं) समुद्रम् असद्य (ताः) आपेया भवन्ति।





शब्दार्थ

गुणः – गुण (गुण) I

भवन्ति-होते हैं।

निर्गुणम् – निर्गुण को (अवगुण)

दोषाः - अवगुण (अयोग्यताएँ)

प्रभवन्ति-निकलती हैं। उत्पन्न होती हैं।


नधः - नदियाँ।



गुणज्ञेषु – गुणियों में।

ते -वे।

प्राप्य – प्राप्त करके।

सुस्वादुतोयाः - स्वादिष्ट जल वाली (नदियाँ)।

समुद्रम् - समुद्र को।

आसाद्य – पहुंच कर ।

अपेयाः – पीने योग्य नहीं होती हैं।








सरलार्थ –

गुणवान् व्यक्तियों में गुण गुण (ही) होते हैं (तथा) वे (अर्थात् गुण) गुणहीन (व्यक्ति) को प्राप्त करके दोष बन जाते हैं। (जिस प्रकार) नदियाँ स्वादिष्ट जल से युक्त ही (पर्वत से) निकलती हैं, (परंतु) समुद्र में पहुँच कर (वे) पीने योग्य नहीं होती हैं।










(ख) साहित्यसङ्गीतकलाविकसनः साक्षात्पशुःपुच्छविषाणहीनः। तृणं न खदिन्नपि जीवमानः तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥2॥








अन्वयः -

साहित्यसङ्गीतकलासीनः (जनः) साक्षात् पुच्छविषाणहीनः पशुः तृणं न खादन् अपि (पशुरिव) जीवमानः (अस्ति)। तद् पशूनां परमं भागधेयम् (अस्ति)।








शब्दार्थ –

विकसनः -अनुपयोगी (बिना) I
पशुः – पशु।

विषाण० – सींग (Horn) I

तृणम्-घास (घास) I

अपि – भी।

भागधेयम् – भाग्य।

पशूनाम् – समुद्र का।

परमम् - परम/बड़ा।

साहित्य – (Literature)

साक्षात् - वास्तव में। (वास्तव में)

पुच्छ० – पूँछ (Tail)

हीनः-अनुपयोगी। बिना।

खादन् - खाता हुआ।

जीवमानः – जीवित है।










सरलार्थ –

साहित्य, संगीत तथा कला-कौशल से शून्य (व्यक्ति) वास्तव में पूंछ व सींग से रहित पशु है, जो घास न खाता हुआ भी (पशु के समान) जीवित है। यह उन पशुओं का अत्यधिक सौभाग्य है।









(ग़) लब्धस्य नश्यति यशः पिशुनस्य मैत्री नष्टक्रियस्य कुलमर्थपरस्य धर्मः। विद्याफलं व्यसनिनः कृपास्य सौख्यं राज्यं प्रमत्त सचिवस्य नाराधिपस्य ॥ 3/







अन्वयः

लब्धस्य यशः, पिशुनस्य मैत्री, नष्टक्रियास्य कुलम्,
अर्थपरस्य विद्या धर्मः, व्यसनिनोफलं, कृपणस्य सौख्यम्, प्रमत्त सचिवस्य नाराधिपस्य राज्यं नश्यति।








शब्दार्थ-

लुब्धास्य-लालची का (लालची) मैं

पिशुनस्य – चुगलखोर की (Backbiter) ।

नष्टक्रियस्य – जिसकी क्रिया नष्ट हो गई है।

व्यसनिनः – बुरी लत वाले का।

सौख्यम् – सुख ।

प्रमत्त० – प्रमाद से युक्त (Idle)

नराधिपस्य - राजा का।

नश्यति – नष्ट हो जाता है।

मैत्री - मित्रता।

अर्थपरस्य – जो धन को अधिक महत्त्व देता गई है।

कृपणस्य - कंजूस व्यक्ति का (कंजूस)।

राज्यम् - राज्य ।

सचिव ० – मंत्री।









सरलार्थ –

लालची (व्यक्ति) का यश, चुगलखोर की मित्रता, जिसके कर्म नष्ट हो गए हैं (अकर्मण्य) उसका कुल, धनपरायण (धन को अधिक महत्त्व देने वाले व्यक्ति) का धर्म, बुरी लत वाले का विद्या का फल, कंजूस का सुख तथा जिसके मंत्री प्रमाद से पूर्ण हैं ऐसे राजा का राज्य नष्ट हो जाता है।











(घ) पीत्वा रसं तु कटुकं मधुरं समानं माधुर्यमेव जनयेनमधुमक्षिकासौ।
सन्तस्तथैव समसज्जनदुर्जनानां श्रुत्वा वचः मधुरसूक्तरसं सृजन्ति ॥4॥

अन्वयः

असौ मधुमक्षिका कटुकं मधुरं (वा) रसं समानं पीत्वा माधुर्यम् एव जनयेत् । तथैव सन्तः समसज्जनदुर्जनानां वचः श्रुत्वा मधुरसूक्तरसं सृजन्ति।

शब्दार्थ-

पीत्वा – पीकर ।

कटुकम् - कड़वा ।

समानम् - समान रूप से।

एव – ही।

असौ – यह (स्त्रीलिंग)।

सन्तः – संत लोग।

दुर्जन० – दुष्ट व्यक्ति (Evil Minded, Giants)

वचः - वचन को।

मधुरसूक्तरसं-मधुर सूक्तियों (Proverbs) के रस को।

तु - अथवा ।

मधुरम् – मीठा ।

माधुर्यम् – मधुर ।

जनयेत् – पैदा करती है।

मधुमक्षिका – मधुमक्खी (Honey Bee) 

तथैव - उसी प्रकार ही।

श्रुत्वा – सुनकर ।

सृजन्ति – निर्माण करते हैं (Make) 







(जिस प्रकार) यह मधुमक्खी कड़वे अथवा मधुर रस को समान रूप से पीकर मधुर रस ही उत्पन्न करती है। उसी प्रकार सन्त लोग सज्जन और दुष्ट लोगों के वचन को एक समान रूप से सुन कर मधुर सूक्ति रूप रस का निर्माण करते है।











(ङ) विहाय पौरुषं यो हि दैवमेवावलंबते। प्रसादसिंहवत् तस्य मूर्ध्नि तिष्ठन्ति वैसाः ॥5/







अन्वयः -

यः पौरुषं विहाय हि दैवम् एव अवलंबते, तस्य मूर्धनी प्रसादसिंहवत् वैसाः तिष्ठन्ति।।







शब्दार्थ –

विहाय – छोड़कर।

दैवम् – भाग्य ।

अवलम्बते – सहारा लेता है।

मूर्धनी – सिर पर ।

वैसाः- कौए (कौवे) मैं

पौरुषम् – पुरुषार्थ को (संघर्ष)।

प्रासाद० - महल।

ईव - ही।

प्रासाद० - महल।

तिष्ठन्ति-बैठा हैं।





सरलार्थ – जो (व्यक्ति) परिश्रम का त्याग करके भाग्य का सहारा लेता है, उसके सिर पर महल पर स्थित सिंह के समान कौए (ही) बैठा करते हैं।








(च) पुष्पपत्रफलच्छायामूलवल्कलदारुभिः। धन्या महीरुहाः येषां विमुखं यान्ति नार्थिनः ॥6 /






अन्वयः- महीरुहाः पुष्पपत्रफलछाया मूलवल्कलदारुभिः धन्या (शांति)। येषां अर्थिनः विमुखः न यान्ति।।






शब्दार्थ-

पुष्प - फूल (Flower) 

मूल - जड़।

दारुभिः – लकड़ियों द्वारा।

विमुखं - खाली हाथ।

अर्थिनः - याचक।

पत्र – पत्ता।

वल्कल – पेड़ की छाल।

महीरुहाः - वृक्ष (पेड़) I

यान्ति – जाते हैं।


सरलार्थ –

वृक्ष फूल, पत्ते, फल, छाया, जड़, छाल तथा लकड़ियों के द्वारा धन्य हैं। जिनके याचक (कभी) खाली हाथ नहीं जाते हैं।




(च) चिन्तनीय हि विपदम् आदावेव प्रतिपुष्टिः। न कूपखानं युक्तं प्रदीप्ते वह्निना गृहे॥7॥

अन्वयः

विपदा प्रतिक्रियाः आदौ एव हि चिंतननीयः। वह्निना प्रदीप्ते गृहे कूपखानं न युक्तम् (भवति।)।

शब्दार्थ-

चिंतनीयः-विचार करना चाहिए। युक्तम् - । वह्निना – अग्नि (Fire) विपदाम् - विपत्तियों का प्रतिक्रियाः – बचाव (Solution) I खननम् - खोदना । प्रप्रयते – लग जाने पर।

अदाउ -एक्टर में।

कूप - कुआ।

घरे -घर।

सरलार्थ –

संकटों का बचाव आरम्भ में ही सोच लेना चाहिए। घर में आग लग जाने पर कुआ खोदना उचित नहीं है।




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